Tuesday, May 6, 2008

टशन - एक समीक्षा

पिछले शुक्रवार को फिल्म ‘टशन’ देखी। आजकल हिंदी फ़िल्मों के साथ ध्यान रखना पड़ता है कि ये बच्चों के साथ देखने लायक है या नहीं। ओंकारा अच्छी फ़िल्म थी, लेकिन बच्चों के साथ बैठ कर नहीं देखी जा सकती थी। यह फ़िल्म यश चोपड़ा की पेशकश थी, इसलिए देखने की हिम्मत जुटा ली। इंटरनेट पर इसकी समीक्षा पढ़ कर पता लगा सकता था कि फ़िल्म कैसी है। लेकिन फिर फ़िल्म देखने में ज्यादा आनंद नहीं आने की संभावना थी – चूंकि मन में पहले से एक धारणा बन जाती है कि ये बहुत अच्छी है या बहुत खराब है। और फिर कई बार कहानी आदि भी पता चल जाती है। एक तो वैसे ही हिंदी फ़िल्मे फ़ार्मूला फ़िल्में होती है, जिनमें कहानी खास मायने नहीं रखती है। सारा मजा किरकिरा हो जाता। आप ने भी अगर यह फ़िल्म अभी तक नहीं देखी है और आप देखने की सोच रहे हैं, तो मेरा सुझाव है कि आप यह समीक्षा अभी नहीं पढ़े। पहले फ़िल्म देख लें फिर इसे पढ़ें।

कैसी लगी फ़िल्म? वाहियात। लेकिन, मनोरंजक भी। बिल्कुल ‘ओवर-द-टाँप’ – भैया जी के शब्दों में। शुरुआत के पाँच मिनट बर्दाश्त कर लें, फिर तो फ़िल्म पटरी पर आ जाती है। लगता है अभी इसकी अच्छी क्वालिटी वाली डी-वी-डी हमारे आसपास की दुकानों पर नहीं है। लिहाजा, पिक्चर खास साफ़ नही थी। और आवाज़? तौबा-तौबा। भैया जी (अनिल कपूर) के ‘अंग्रेज़ी’ के संवाद बिलकुल भी पल्ले नहीं पड़े। हम अंदाजा लगा सकते हैं कि वे बेहद हास्यपूर्ण होगें। फ़िल्म ‘दीवार’ में अमिताभ बच्चन ने शिव-मंदिर में जो लम्बे संवाद बोले थे – उन्हें भैया जी की निराली अंग्रेज़ी में सुनने का एक अलग ही आनंद है।

आजकल हर हिंदी फ़िल्म की डी-वी-डी में अंग्रेज़ी में सब-टाईटल्स ज़रुर होते हैं – जिनका अपना अलग ही आनंद है। कई बार तो हमें लगा कि शायद भैया जी ने ही सब-टाईटल्स लिखे हैं। लेकिन चूंकि डी-वी-डी असली नहीं थी, तो हमें दोहरा आनंद प्राप्त हुआ। वो कैसे? वो इस प्रकार कि सब-टाईटल्स दृश्य निकल जाने के 10 मिनट बाद आते थे। आप सुन कुछ रहे हैं और पढ़ कुछ और रहे हैं। बहुत मजा आया।

फ़िल्म की कहानी कोई खास नहीं है। लेकिन फ़िल्म के बीच में और अंत में दो लम्बी लड़ाई के दृश्य हैं जो काबिल-ए-तारीफ़ है। उनमें जितने हथियार हो सकते थे, जितनी कूद-फ़ांद हो सकती थी, सब थे। हैलिकाप्टर, फ़्लैम-थ्रोअर, बम, धमाका, विस्फ़ोट, निंजा, कराटे, आदि आदि सब कुछ है। 10 मिनट से ज्यादा लम्बे दृश्य होगे, लेकिन मन करता है कि थोड़ी देर और चले तो मजा आए।

फ़िल्म में काँल-सेंटर का भी योगदान है। सैफ़ अली खान वहीं काम करते हैं और इसी की बदौलत भैया जी तगड़ी रकम हासिल कर लेते हैं जिसे देख कर सैफ़ अली खान एक-दो गलत कदम उठा लेते है और उसी भागा-भागी में अक्षय कुमार और करीना कपूर शामिल हो जाते हैं। कई बार प्रियदर्शन निर्देशित फ़िल्म – हेराफ़ेरी – की याद आई। लेकिन यहाँ परेश रावल नहीं हैं। फिर भी फ़िल्म मनोरंजक है। वेलकम भी कुछ-कुछ ऐसी ही थी।

विशाल-शेखर से ओम-शांति-ओम के बाद कुछ आशा बंधी थी। लेकिन यहाँ निराशा ही हाथ लगी। कोई भी गीत कर्णप्रिय नहीं था। गानों का फ़िल्मांकन भी स्तर से नीचे हैं। लेकिन हरिद्वार की तो इन्होनें काया-पलट कर के रख दी है। मैं हरिद्वार करीब 30 साल पहले गया था, तब तो ये ऐसा नहीं था। लगता है, भारत बहुत तेजी से बदल रहा है।

फ़िल्म में काफ़ी लम्बे फ़्लैश-बैक हैं। थोड़े छोटे होते तो अच्छा होता। गुड़िया और बच्चन पांडे की बचपन की कहानी मर्मस्पर्शी है।

बच्चों ने कई बार पूछा कि टशन का मतलब क्या है? ठीक से बता नहीं पाया। अंग्रेज़ी के शब्द ‘स्टाईल’ को शायद टपोरी भाषा में टशन कहते हैं। विजय कृष्ण आचार्य का यह पहला मौका है फ़िल्म निर्देशन का। आशा है अगली फ़िल्मों में वे कहानी की ओर भी थोड़ा ध्यान देंगें।

जब असली डी-वी-डी आ जाएगी, तब इसे एक बार और देखने का ईरादा है। और कुछ नहीं तो भैया जी की अंग्रेज़ी के लिए और दो लम्बी लड़ाईयों के लिए।

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